Friday, December 19, 2008

sunapan...
सूनी पड़ी वोह डाली उस पेड़ की,
बहार आने के इंतजार में कब से है..

तेरी एक झलक पाने को तरसती आँखें,
छलक जाने को बेताब कब से है..

एक कशमकश सी उठी इस तरह मेरे दिल में है,
जैसे सूनापन फैला हुआ सा आज भरी महफिल में है...

खुशियाँ चारो ओर तेरे बिखरी पड़ी है,
पर एक ग़मगीन मौहौल छुपा हुआ सा कहीं मेरे मन में है..

दूर तक अब कोई किरण दिखाई देती नहीं है,
अँधेरा छाया हुआ सा कुछ इस कदर मेरे पल पल में है..

हवाओं ने भी रुख मोडा हुआ अब हर कदम है,
जिस तरह धकेला मुझे हर बार मेरे अपनों ने है...

जीवन-मृत्यु का भेद अब समझ आता नहीं है,
बस रुकी हुई मेरी हर सांस, एक इंतजार में है..

आँखों का क्या कहना, वोह तो भीगी पड़ी कब से है,
बस एक हाँ की खवाहिश, छलकाने को बेताब उन्हें कब से है...

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